महाकुंभ मेला भारतीय संस्कृति का ऐसा पवित्र उत्सव है, जिसकी गूंज प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक युग तक सुनाई देती है। महाकुंभ मेला इतिहास, धर्म, दर्शन और समाज के अद्वितीय समागम को दर्शाता है। यह मेला न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि भारतीय दर्शन, परंपरा और खगोलीय विज्ञान का अद्भुत संगम भी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश की बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज (इलाहाबाद), उज्जैन और नासिक के पवित्र स्थलों पर गिरीं। यही कारण है कि इन चार स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। इस मेले का इतिहास इतना पुराना है कि इसकी उत्पत्ति का समय स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है।महाकुंभ का उल्लेख वेदों, पुराणों और महाकाव्यों में मिलता है।
श्रीमद्भागवत पुराण, विष्णु पुराण और महाभारत में समुद्र मंथन की कथा को विस्तार से बताया गया है। इस कथा के अनुसार, देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र का मंथन किया। मंथन से निकले अमृत कलश को लेकर देवताओं और असुरों में संघर्ष हुआ, जिसमें अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिरीं।
विष्णु पुराण में यह भी उल्लेख है कि जब गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करता है और सूर्य मेष राशि में होता है, तो हरिद्वार में कुंभ का आयोजन होता है। इसी प्रकार, जब सूर्य और गुरु सिंह राशि में होते हैं, तो नासिक में कुंभ लगता है। उज्जैन में कुंभ तब होता है जब गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करता है। प्रयागराज में माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरु मेष राशि में होता है। इस खगोलीय गणना का सटीक पालन आज भी किया जाता है।इतिहासकार मानते हैं कि कुंभ मेला सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुराना है। तो कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुंभ मेले का आयोजन गुप्त काल (तीसरी से पाँचवीं सदी) में सुव्यवस्थित रूप में शुरू हुआ।
कुंभ मेले का इतिहास
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था. मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'सभा' या 'मिलना'.
इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है. पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी
कुंभ मेलों के प्रकार
महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.
पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.
अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.
कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.
माघ कुंभ मेला: इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है
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1.इस बार कुंभ का आयोजन प्रयागराज में हुआ है
जोकि 13 जनवरी-26 फरवरी 2025 तक चलेगा. आइए जानते हैं प्रयाग के बाद अब अगला कुंभ कब और कहां लगेगा
2.प्रयागराज के बाद अब अगला कुंभ
2027 में महाराष्ट्र के नासिक में आयोजित किया जाएगा। यह मेला त्र्यंबकेश्वर में लगेगा। इसके बाद 2028 में पूर्ण कुंभ का आयोजन सिंहस्थ, उज्जैन में होगा।
3.कुंभ शब्द के कई मतलब होते हैं:
कुंभ का शाब्दिक अर्थ है कलश, घड़ा, सुराही, या बर्तन.
कुंभ को पवित्र कलश भी कहा जाता है.
कुंभ, आत्म जाग्रति का प्रतीक है.
कुंभ, मानवता का अनंत प्रवाह है.
कुंभ, प्रकृति और मानवता का संगम है.
कुंभ, ऊर्जा का स्त्रोत है.
कुंभ, मानव-जाति को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार का एहसास कराता है.
कुंभ, गर्भ का प्रतीक है.
4.आज़ाद भारत में पहला कुंभ मेला साल 1954 में इलाहाबाद (प्रयागराज) में लगा था. यह मेला मौनी अमावस्या के दिन लगा था. इस मेले में भगदड़ मचने से 800 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी.